खामोश आहट ! रात का कनेरा , शाम सवेरे बीच का पहरा ..
कुछ घुप्प सुनहरे अँधेरे कुछ छाँव चांदनी
मीठी सी बयार सरकते फिसलते पर्दों की पुकार
खोलते बंद होते शीशे की दीवार . ..
फर्श सिरहाने बैठे सुबके सिकोड़े
... जाने क्या ढूँढें पाँव टटोले
ऐ पीर ..इस पीर की पैरवी अब हमसे होत न जात
ऐ खैर तेरी खैरियत अब हमरी न बस की बात ..
ये किस सोहबत की सुलगती सोंधी मेहक
कभी सूंघ सूंघ यूँ चहकती बहक
फिर ठीठक सोचूँ ये कैसी सी लहक
मंदर के धूप से उठती गिरती समाती
किस रूह की खामोश आहट
... के कान गाल हुए जाते थे लाल
ऐ मीर मेरी मिल्कीयत नहीं
न शउर तहज़ीब सहेजने का
ये किस तरकीब से आते हो
ये किस बेतरतीब को भरमाते हो
इधर उधर कुछ जुगत लगाते
पर खुद ही वापिस भटक आते
कोई भी चाल निशाने पे लगे मजाल
ये कैसी सी बिसात बिछाये वो हँसता पर्वत्दिगार
मैं जीत जीत हारती क्या रहा शह क्या रही मात
जो मेरी न चलनी एक फिर काहे के खैरख्वाह बनते हो
ये किस छन्नी से हर सांस छानते हो
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